बस अपने हित साधने के लिए होती है राजनीति


 राजनीति में कब क्या हो जाए, किसी को भी नहीं पता। चाहे आप यूपी का उदाहरण ले लीजिए या फिर तमिलनाडु का। बात उत्तर प्रदेश से करते हैं। बात है कि सपा-कांग्रेस गठबंधन की। भले ही अब यूपी में चुनावों का दंगल शुरू हो गया है और पहले चरण के लिए मतदान भी हो चुका है। यानि प्रदेश में सरकार बनाने की पहली सीढ़ी सात चरणों के मतदान के साथ खत्म हो जाएगी, जिसकी शुरुआत शनिवार को हो गई है। दूसरी सीढ़ी यानि 11 मार्च को पार हो जाएगी। परिणाम घोषित होने के साथ ही सबकुछ साफ हो जाएगा कि कौन कितने पानी में रहा। 
जहां तक सपा-कांग्रेस गठबंधन की बात है, शायद सपा को इतना आत्मविश्वास नहीं रहा था कि वह अपने बलबूते पर प्रदेश में सरकार बना सकेगी, लिहाजा उसने कांग्रेस का दामन थाम लिया। उसी कांग्रेस का, जो चिल्ला-चिल्ला कर यह कहती रही कि बदहाल यूपी के 27 साल, जिसमें कांग्रेस ने अखिलेश सरकार पर गुंडाराज से लेकर कई तरह के आरोप भी लगाए, लेकिन जहां अपनी राजनीति सिद्ध करनी हो, तो वहां पर सैद्धांतिक मूल्यों की क्या बिसात। अब कांग्रेस के राहुल गांधी और सपा के अखिलेश यादव हर जगह गलबहियां करते नजर आते हैं। क्या दोनों पार्टियों ने यह कैसे मान लिया कि उनका रास्ता सुलभ होगा, ऐसे स्थिति में जब कुछ दिन पहले आप सपा को गरिया रहे थ्ो और फिर उसकी ही चाल चलने के लिए गठबंधन कर लिया। उसी पार्टी से, जिससे आपको सबसे ज्यादा एलर्जी थी। तभी तो कहते हैं-राजनीति में साम, दाम, दंड, भ्ोद सब चलता है जी। 
लेकिन पिछले दशकों में जिस तरह देश का मतदाता जागरूक हुआ है, उसमें उसे किसी भी रूप में गुमराह नहीं किया जा सकता है, क्योंकि आज का मतदाता उस गणित को आसानी से समझने लगा है, जिस गणित के आधार पर राजनीति पार्टियां देश की जनता को धोखा देती आईं हैं। मतदान कहें या चुनाव। यह लोकतंत्र का पर्व है। हर कोई इसमें भागीदार होना चाहता है। होना भी चाहिए, क्योंकि जिस प्रकार देश की राजनीति की दिशा बदली है, उसमें हर मतदाता की भूमिका अहम हो जाती है। अगर, वह अपने अधिकार को समझेगा तो उसे सरकार भी अपने अनुरुप ही मिलेगी। 
अब बात तमिलनाडु की। तमिलनाडु का घटनाक्रम राजनीति तौर पर संघर्ष का है। बस सत्ता हासिल करने की होड़। उसमें न राजनीतिक विरासत की कोई कद्र और न ही उस विचारधार की, जिसे मिलकर और आम सहमति के अनुसार आगे बढ़ाए जाने की जरूरत थी। सहमति की बात छोड़ दीजिए, सत्ता पक्ष के ही दो फाड़ हो गए और उन्हीं के बीच कुर्सी के लिए संघर्ष चल रहा है। यानि जिसने इतनी बड़ी राजनीति विरासत खड़ी की, तब तो सबकुछ एक ही रूट पर चलता रहा, लेकिन उसके जाने के बाद उसकी विरासत पर हक जमाने के लिए एक नहीं, न जाने कितने लोग खड़े होने की कोशिश करने लगे हैं। 




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